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अपठित गद्यांश

 


अपठित गद्यांश की परिभाषा

अपठित का शाब्दिक अर्थ है-जो कभी पढ़ा नहीं गया। जो पाठ्यक्रम से जुड़ा नहीं है और जो अचानक ही हमें पढ़ने के लिए दिया गया हो। अपठित गद्यांश में गद्यांश से संबंधित विभिन्न प्रश्नों के उत्तर देने के लिए कहा जाता है। इस प्रकार इस विषय में यह अपेक्षा की जाती है कि पाठक दिए गए गद्यांश को ध्यानपूर्वक पढ़कर उससे संबद्ध प्रश्नों के उत्तर उसी अनुच्छेद के आधार पर संक्षिप्त रूप में प्रस्तुत करें। प्रश्नों के उत्तर पाठक को स्वयं अपनी भाषा-शैली में देने होते हैं।

अपठित गद्यांश के द्वारा पाठक की व्यक्तिगत योग्यता तथा अभिव्यक्ति क्षमता का पता लगाया जाता है।

अपठित गद्यांश 1.
अपने देश की सीमाओं की दुश्मन से रक्षा करने के लिए मनुष्य सदैव सजग रहा है। प्राचीन काल में युद्ध क्षेत्र सीमित होता था तथा युद्ध धनुष-बाण, तलवार, भाले आदि द्वारा होता था, परंतु आज युद्धक्षेत्र सीमाबद्ध नहीं है। युद्ध में अंधविश्वास से हटकर वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाया जा रहा है। आज विज्ञान ने लड़ाई को एक नया मोड़ दिया है। अब हाथी, ऊँट, घोड़ों का स्थान रेल, मोटरगाड़ियों और हवाई जहाजों ने ले लिया है। धनुष-बाण आदि का स्थान बंदूक व तोप की गोलियों और रॉकेट, मिसाइल, परमाणु तथा प्रक्षेपास्त्रों ने ले लिया है और उनके अनुसार राष्ट्र की सीमाओं के प्रहरियों में अंतर आया है।

अब मानव प्रहरियों का स्थान बहुत हद तक यांत्रिक प्रहरियों ने ले लिया है जो मानव से कहीं अधिक सजग, त्रुटिहीन और क्षमतावान् हैं। आधुनिक प्रहरियों में रेडार, सौनार, लौरान, शौरान आदि विशेष उल्लेखनीय हैं। यहाँ रेडार का वर्णन किया जाता है।

अपठित गद्यांश 2.
यों तो मानव के इतिहास के आरंभ से ही इस कला का सूत्रपात हो गया था। लोग अपने कार्यों या विचारों के समर्थन के लिए गोष्ठियों या सभाओं का आयोजन किया करते थे। प्रचार के लिए भजन-कीर्तन मंडलियाँ भी बनाई जाती थीं। परंतु उनका क्षेत्र अधिकतर धार्मिक, दार्शनिक या भक्ति संबंधी होता था।

वर्तमान विज्ञापन कला विशुद्ध व्यावसायिक कला है और आधुनिक व्यवसाय का एक अनिवार्य अंग है। विज्ञापन के लिए कई साधनों का उपयोग किया जाता है; जैसे-हैंडबिल, रेडियो और दीवार-पोस्टर, समाचार-पत्र, पत्रिकाएँ, बड़े-बड़े साइनबोर्ड और दूरदर्शन।

जब से छपाई का प्रचार-प्रसार बढ़ा तब से इश्तिहार या हैंडबिल का विज्ञापन के लिए प्रयोग आरंभ हुआ। कागज और मुद्रण सुविधा के सुलभ होने से विज्ञापन के इस माध्यम का उपयोग बहुत अधिक लोकप्रिय हुआ। मान लीजिए, साड़ियों की दो समान दुकानें एक ही बाजार में हैं।

अपठित गद्यांश 3.
मानव जीवन के लिए मनोरंजन की अत्यंत आवश्यकता है। मनोरंजन के कार्य तथा साधन कुछ क्षण के ‘लिए मानव जीवन के गहन बोझ को कम करके व्यक्ति में उत्साह का संचालन कर देते हैं। मानव सृष्टि के आरंभ से ही मनोरंजन की आवश्यकता प्राणियों ने अनुभव की होगी और जैसे-जैसे समय व्यतीत होता गया वैसे-वैसे नवीनतम खोज इस अभाव को पूरा करने के लिए की गई।

वर्तमान काल में चारों ओर विज्ञान की तूती बोल रही है। मनोरंजन के क्षेत्र में जितने भी सुंदर अन्वेषण एवं आविष्कार हुए हैं, उनमें सिनेमा (चलचित्र) भी एक है। चलचित्र का आविष्कार 1890 ई० में टामस एल्वा एडीसन द्वारा अमेरिका में किया गया। जनसाधारण के सम्मुख सिनेमा पहली बार लंदन में ‘लुमेर’ द्वारा उपस्थित किया गया। भारत में पहले सिनेमा के संस्थापक ‘दादा साहब फाल्के’ समझे जाते हैं।


अपठित गद्यांश 4.
मेरी माँ कहती है कि जिस तरफ़ दुनिया चल रही है, हमें भी उसी तरफ़ चलना चाहिए। उसने कभी स्वतंत्रता पर अंकुश नहीं लगाया, बल्कि खुद को उन्होंने मेरे अनुरूप बदला है। एक रूढ़िवादी परिवार से ऊँचा उठकर उन्होंने सोचा, जिया और हमें जीना सिखाया। मुझे यह कहते हुए ज़रा भी संकोच नहीं होता कि मेरे माता-पिता मुझसे कहीं ज्यादा आधुनिक विचारधारा वाले व्यक्ति हैं और मुझे उन पर गर्व है। मुझे लगता है कि अपने बच्चों के लिए हर माँ सबसे ज्यादा साहसी और निर्भीक होती है। वह सबसे ज्यादा तरक्कीपसंद होती है। वह नए ज़माने की माँ हो या पुराने ज़माने की, अपने बच्चों को वह तमाम बंधनों से मुक्त करना चाहती है और उन्हें आज़ाद परिंदों की तरह खुला आसमान देना चाहती है।

माँएँ अपनी फ़ितरत से ही तरक्कीपसंद होती हैं, क्योंकि वे बच्चे के साथ-साथ दोबारा विकसित होती हैं। यह बच्चे को पालने और उसे विकसित करने की उनकी मूल प्रवृत्ति है जो उन्हें अपनी आदतों और अपने मूल्यों को नए सिरे से गढ़ने के लिए प्रेरित करती है। आपने शायद गोर्की का उपन्यास ‘माँ’ पढ़ा हो। वह माँ अनपढ़ है, लेकिन इसके बावजूद वह समझ पाती है कि उसका बेटा क्या कर रहा है और क्यों कर रहा है।


अपठित गद्यांश 5.
हर व्यक्ति में एक समूचा ब्रह्मांड वैसे ही बसा है जैसे छोटे से बीज में पूरा वृक्ष छिपा है। आदमी इस ‘ब्रह्मांड की रचनात्मक और क्रियात्मक इकाई है। इस बात से विज्ञान भी सहमत है। वैज्ञानिक कहते हैं कि विश्व के प्रत्येक जीव की क्रिया और उसका स्वभाव अलग-अलग होता है। किन्हीं भी दो में एकरूपता नहीं होती। विभिन्न प्राणियों का समावेश ही संसार है।

इसी प्रकार से करोड़ों कोशिकाओं (सेल्स) से इस शरीर का निर्माण हुआ है। प्रत्येक का स्वभाव तथा कर्म भिन्न है, फिर भी यह मानव शरीर बाहर से एक दिखाई पड़ता है। प्रत्येक कोशिका जीवित है। कुछ सुप्त अवस्था में हैं, तो कुछ जाग्रत में। जैसे ही कुछ कोशिकाएँ मरती हैं, उनका स्थान दूसरी कोशिकाएँ स्वतः ले लेती हैं। सभी अपने-अपने काम में सतत लगी हुई हैं। वे कभी विश्राम नहीं करतीं। यदि इनमें से एक भी कोशिका काम करना बंद कर दे, तो इस शरीर का अस्तित्व ही खतरे में पड़ जाएगा।

हालाँकि ये कोशिकाएं कार्य में तथा व्यवहार में एक-दूसरे से भिन्न हैं, परंतु ध्यान की विधि द्वारा इनमें उसी प्रकार सामंजस्य स्थापित किया जा सकता है जैसे सूर्य की किरणें चारों तरफ़ फैली होने के बावजूद, वे सौर बैटरी द्वारा एकत्र कर विद्युत तरंगों में बदली जा सकती हैं। जिस प्रकार आप इन्हें एक जगह एकत्र कर, केंद्रित और नियंत्रित कर बड़े-से-बड़ा काम ले सकते हैं ठीक उसी तरह से आदमी ध्यान के माध्यम से शरीर की सभी कोशिकाओं की ऊर्जा को एकत्र कर ऊर्ध्वगामी कर लेता है। यदि एक क्षण के लिए भी ऐसा कर पाया तो उतने में ही वह नई शक्ति, नए ओज से भर जाता है। जैसे-जैसे ध्यान की अवधि बढ़ने लगती है, ध्यान टिकने लगता है, वैसे-वैसे उसमें परिवर्तन होने लगता है।

अपठित गद्यांश 6.
शीलयुक्त व्यवहार मनुष्य की प्रकृति और व्यक्तित्व को उद्घाटित करता है। उत्तम, प्रशंसनीय और पवित्र आचरण ही शील है। शीलयुक्त व्यवहार प्रत्येक व्यक्ति के लिए हितकर है। इससे मनुष्य की ख्याति बढ़ती है। शीलवान व्यक्ति सबका हृदय जीत लेता है। शीलयुक्त व्यवहार से कटुता दूर भागती है। इससे आशंका और संदेह की स्थितियाँ कभी उत्पन्न नहीं होतीं। इससे ऐसे सुखद वातावरण का सृजन होता है, जिसमें सभी प्रसन्नता का अनुभव करते हैं। शीलवान व्यक्ति अपने संपर्क में आने वाले सभी लोगों को सुप्रभावित करता है। शील इतना प्रभुत्वपूर्ण होता है कि किसी कार्य के बिगडने की नौबत नहीं आती।

अधिकारी-अधीनस्थ, शिक्षक-शिक्षार्थी, छोटों-बड़ों आदि सभी के लिए शीलयुक्त व्यवहार समान रूप से आवश्यक है। शिक्षार्थी में यदि शील का अभाव है तो वह अपने शिक्षक से वांछित शिक्षा प्राप्त नहीं कर सकता। शीलवान अधिकारी या कर्मचारी में आत्मविश्वास की वृद्धि स्वतः ही होने लगती है और साथ ही उनके व्यक्तित्व में शालीनता आ जाती है। इस अमूल्य गुण की उपस्थिति में अधिकारी वर्ग और अधीनस्थ कर्मचारियों के बीच, शिक्षकगण और विद्यार्थियों के बीच तथा शासक और शासित के बीच मधुर एवं प्रगाढ़ संबंध स्थापित होते हैं और प्रत्येक वर्ग की कार्यकुशलता में वृद्धि होती है। इस गुण के माध्यम से छोटे-से-छोटा व्यक्ति बड़ों की सहानुभूति अर्जित कर लेता है।

शील कोई दुर्लभ और दैवी गुण नहीं है। इस गुण को अर्जित किया जा सकता है। पारिवारिक संस्कार इस गुण को विकसित और विस्तारित करने में बहुत बड़ी भूमिका अदा करते हैं। मूल भूमिका तो व्यक्ति स्वयं अदा करता है। चिंतन, मनन, सत्संगति, स्वाध्याय और सतत अभ्यास से इस गुण की सुरक्षा और इसका विकास होता है।

अपठित गद्यांश 7.
तानाशाह जनमानस के जागरण को कोई महत्त्व नहीं देता। उसका निर्माण ऊपर से चलता है, किंतु यह लादा हुआ भार-स्वरूप निर्माण हो जाता है। सच्चा राष्ट्र-निर्माण वह है, जो जनमानस की तैयारी पर आधारित रहता है। योजनाएँ शासन और सत्ता बनाएँ, उन्हें कार्यरूप में परिणत भी करें; किंतु साथ ही उन्हें चिर-स्थायी बनाए रखने एवं पूर्णतया उद्देश्य-पूर्ति के लिए यह आवश्यक है कि जनमानस उन योजनाओं के लिए तैयार हो। स्पष्ट शब्दों में हम कह सकते हैं, कि सत्ता राष्ट्र-निर्माण रूपी फसल के लिए हल चलाने वाले किसान का कार्य तो कर सकती है, किंतु उसे भूमि जनमानस को ही बनानी पड़ेगी।

अन्यथा फसल या तो हवाई होगी या फिर गमलों की फसल होगी; जैसा आजकल ‘अधिक अन्न उपजाओ’ आंदोलन के कर्णधार भारत के मंत्रिगण कराया करते हैं। इस फसल को किस-किस बुभुक्षित के सामने रखेगी शासन-सत्ता? यह प्रश्न मस्तिष्क में चक्कर ही काटा करता है। इस विवेचन से हमने राष्ट्र-निर्माण में जनमानस की तैयारी का महत्त्व पहचान लिया है। यह जनमानस किस प्रकार तैयार होता है? इस प्रश्न का उत्तर आपको समाचार-पत्र देगा। निर्माण-काल में यदि समाचार-पत्र सत्समालोचना से उतरकर ध्वंसात्मक हो गया तो निश्चित रूप से वह कर्तव्यच्युत हो जाता है, किंतु सत्समालोचना निर्माण के लिए उतनी ही आवश्यक है, जितना निर्माण का समर्थन।

जनमानस को तैयार करने के लिए समाचार-पत्र किस नीति को अपनाएँ? यह प्रश्न अपने में एक विवाद लिए हुए है; क्योंकि भिन्न-भिन्न समाचार-पत्र भिन्न-भिन्न नीतियों को उद्देश्य बनाकर प्रकाशित होते हैं। यहाँ तक कि राष्ट्र-निर्माण की योजनाएँ भी उनके मस्तिष्क में भिन्न-भिन्न होती हैं।

अपठित गद्यांश 8.
मैं इस निर्णय पर पहुँच चुका हूँ कि उस आदमी से समूची मनुष्य जाति की तरफ़ से प्रार्थना करूँ कि वह यह वसीयत करे कि मेरी लाश जलाई न जाए, बल्कि मेडिकल इंस्टीट्यूट को अध्ययन के लिए दे दी जाए। पूरी बात पढ़ लेने के बाद आप भी इसी निर्णय पर पहुँचेंगे। एक जगह चार-पाँच आदमी बैठे हैं। बात उसी आदमी की हो रही है, जिसकी गिनती शहर के खास लखपतियों में है। पहला कहता है-‘शहर में किसी को यह गौरव हासिल नहीं है कि उसे उस आदमी ने चाय पिलाई हो, पर मैं उसकी चाय पी चुका हूँ।’

सब भौचक्के रह जाते हैं। कहते हैं-‘असंभव! ऐसा हो ही नहीं सकता। उस आदमी ने किसी को धूल का एक कण भी नहीं खिलाया।’ पहला कहता है-‘पर यह सच है। उसने प्रसन्नता से मुझे चाय पिलाई।’ हुआ यह कि मैं उसके भाई की मृत्यु पर शोक प्रकट करने पहुँचा। तुम लोग जानते ही हो, प्रॉपर्टी को लेकर इसका भाई से मुकदमा चल रहा था। इस बीच भाई की मृत्यु हो गई और प्रॉपर्टी इसे मिल गई। मैंने सोचा, आखिर भाई था। इसे दुख तो हुआ ही होगा। मैं फाटक में घुसा तो उसने पूछा-‘कैसे आए?

मैंने उदास होकर कहा-‘आपके भाई की मृत्यु हो गई, ऐसा सुना है।’ वह बोल पड़ा-‘अगर उसकी मौत पर दुख प्रकट करने आए हो तो फाटक के बाहर हो जाओ, पर तुम्हें दुख नहीं है, तो मैं चाय पिला सकता हूँ।’ मैंने कहा- अगर आपको दुख नहीं है, तो मुझे दुख मनाने की क्या पड़ी है। चलो, चाय पिलाओ।’ कुत्ते भी रोटी के लिए झगड़ते हैं, पर एक के मुँह में रोटी पहुँच जाए तो झगड़ा खत्म हो जाता है। आदमी में ऐसा नहीं होता। प्रेम से चाय पिलाई जाती है, तो नफ़रत के कारण भी। घृणा भी आदमी को उदार बना देती है।

अपठित गद्यांश 9.
काव्य-कला गतिशील कला है; किंतु चित्रण-कला स्थायी कला है। काव्य में शब्दों की सहायता से क्रियाओं और घटनाओं का वर्णन किया जा सकता है। कविता का प्रवाह समय द्वारा बँधा हुआ नहीं है। समय और कविता दोनों ही प्रगतिशील हैं; इसलिए कविता समय के साथ परिवर्तित होने वाली क्रियाओं, घटनाओं और परिस्थितियों का वर्णन समुचित रूप से कर सकती है। चित्रण-कला स्थायी होने के कारण समय के केवल एक पल को-पदार्थों के केवल एक रूप को-अंकित कर सकती है। चित्रण-कला में केवल पदार्थों का चित्रण हो सकता है।

कविता में परिवर्तनशील परिस्थितियों, घटनाओं और क्रियाओं का वर्णन हो सकता है, इसलिए कहा जा सकता है कि कविता का क्षेत्र चित्रकला से विस्तृत है। कविता द्वारा व्यक्त किए हुए एक-एक भाव और कभी-कभी कविता के एक शब्द के लिए अलग चित्र उपस्थित किए जा सकते हैं। किंतु पदार्थों का अस्तित्व समय से परे तो है नहीं, उनका भी रूप समय के साथ बदलता रहता है और ये बदलते हुए रूप बहुत अंशों में समय का प्रभाव प्रकट करते हैं। इसी प्रकार क्रिया और गति, बिना पदार्थों के आधार के संभव नहीं। इस भाँति किसी अंश में कविता पदार्थों का सहारा लेती है और चित्रण-कला प्रगतिवान समय द्वारा प्रभावित होती है, पर यह सब गौण रूप से होता है।

हमने लिखा है कि पदार्थों का चित्रण चित्रकला का काम है, कविता का नहीं। इस पर कुछ लोग आपत्ति कर सकते हैं कि काव्य-कला के माध्यम से अधिक शब्द सर्वशक्तिमान हैं, उनसे जो काम चाहे लिया जा सकता है; पदार्थों के वर्णन में वे उतने ही काम के हो सकते हैं जितने क्रियाओं के, पर यह स्वीकार करते हुए भी कि शब्द बहुत कुछ करने में समर्थ हैं, यह नहीं माना जा सकता कि वे पदार्थों का चित्रण उसी सुंदरता से कर सकते हैं जिस सुंदरता से चित्र।

अपठित गद्यांश 10.
हरिद्वार स्टेशन पर श्यामलाकांत जी का बड़ा लड़का दीनानाथ मुझे लेने आया था। उसे अपनी पढ़ाई पूरी किए दो -वर्ष हो गए हैं, तभी से नौकरी की तलाश में भटक रहा है। मैंने पूछा-‘अब तो जगह-जगह रोज़गार कार्यालय खुल गए हैं, उनकी सहायता क्यों नहीं लेते?’ कहने लगा-चाचा जी वहाँ भी गया था, पूरे दिन लाइन में खड़ा रहने पर जब मेरी बारी आई तो अफ़सर बोला-‘भाई! नाम तो तुम्हारा लिख लेता हूँ, पर जल्दी नौकरी पाने की कोई आशा मत करना। तुम्हारी योग्यता के हज़ारों व्यक्ति पहले से इस कार्यालय में नाम दर्ज करा चुके हैं।’ मैं सोचने लगा जब एक छोटे शहर का यह हाल है, तो पूरे देश में बेरोजगारों की कितनी भीड़ भटक रही होगी?

घर पहुँचा तो छोटे-से मकान में सामान की ठूसमठास और बच्चों की भीड़ देखकर मेरा दम घुटने लगा। मैंने श्यामला बाबू से पूछा- क्या तुम्हारे पास यही दो कमरे हैं?’ वे बोले- क्या करूँ मित्र! दो वर्ष पहले इस शहर में आया था। तभी से मकान की तलाश में भटक रहा हूँ।

अब यही देखिए न! मेरी तबीयत भी ढीली ही रहती है। सोचा था विवाह के कपड़े दरजी से सिलवा लूँगा। बड़े बेटे को दरज़ी के यहाँ भेजा, लेकिन वह जिस किसी भी दुकान पर गया, हर दरजी ने पहले से सिलने आए कपड़ों का ढेर दिखाकर अपनी मज़बूरी जाहिर कर दी। पहले ग्राहक का स्वागत होता था, अब उसे भी चिरौरी-सी करनी पड़ती है, फिर भी समय पर काम नहीं होता। दुकानें पहले से कहीं अधिक खुल गई हैं, लेकिन ग्राहकों की बढ़ती हुई भीड़ के लिए वे अब भी कम पड़ रही हैं।’

अपठित गद्यांश 11.
यह वास्तव में आश्चर्य का विषय है कि हम अपने साधारण कार्यों के लिए करने वालों में जो योग्यता देखते ‘हैं, वैसी योग्यता भी शिक्षकों में नहीं ढूँढते। जो हमारी बालिकाओं, भविष्य की माताओं का निर्माण करेंगे उनके प्रति हमारी उदासीनता को अक्षम्य ही कहना चाहिए। देश-विशेष, समाज-विशेष तथा संस्कृति-विशेष के अनुसार किसी के मानसिक विकास के साधन और सुविधाएँ उपस्थित करते हुए उसे विस्तृत संसार का ऐसा ज्ञान करा देना ही शिक्षा है, जिससे वह अपने जीवन में सामंजस्य का अनुभव कर सके और उसे अपने क्षेत्र-विशेष के साथ ही बाहर भी उपयोगी बना सके।

यह महत्त्वपूर्ण कार्य ऐसा नहीं है जिसे किसी विशिष्ट संस्कृति से अनभिज्ञ चंचल चित्त और शिथिल चरित्र वाले व्यक्ति सुचारु रूप से संपादित कर सकें, परंतु प्रश्न यह है कि इस महान उत्तरदायित्व के योग्य व्यक्ति कहाँ से लाए जाएँ? पढ़ी-लिखी महिलाओं की संख्या उँगलियों पर गिनने योग्य है और उनमें भी भारतीय संस्कृति के अनुसार शिक्षिताएँ बहुत कम हैं, जो हैं उनके जीवन के ध्येयों में इस कर्तव्य की छाया का प्रवेश भी निषिद्ध समझा जा सकता है।

कुछ शिक्षिका वर्ग की उच्छृखलता समझी जाने वाली स्वतंत्रता के कारण कारण और कछ अपने संकीर्ण दष्टिकोण के कारण अन्य महिलाएँ अध्यापन कार्य तथा उसे जीवन का लक्ष्य बनाने वालियों को अवज्ञा और अनादर की दृष्टि से देखने लगी हैं, अतः जीवन के आदि से अंत तक कभी किसी अवकाश के क्षण में उनका ध्यान इस आवश्यकता की ओर नहीं जाता, जिसकी पूर्ति पर उनकी संतान का भविष्य निर्भर है। अपने सामाजिक दायित्वों को समझा जाना चाहिए। यह समाज में आज सबसे बड़ी कमी है।

अपठित गद्यांश 12.
का जनसंख्या की वृद्धि भारत के लिए आज एक विकट समस्या बन गई है। यह समाज की सुख-संपन्नता के लिए एक भयंकर चुनौती है। महानगरों में कीड़े-मकोड़ों की भाँति अस्वास्थ्यकर घोंसलों में आदमी भरा पड़ा है। न धूप, न हवा, न पानी, न दवा। पीले-दुर्बल, निराश चेहरे। यह संकट अनायास नहीं आया है। संतान को ईश्वरीय विधान और वरदान माननेवाला भारतीय समाज ही इस रक्तबीजी संस्कृति के लिए जिम्मेदार है। चाहे खिलाने को रोटी और पहनाने को वस्त्र न दें, शिक्षा को शुल्क और रहने को छप्पर न हो, लेकिन अधभूखे, अधनंगे बच्चों की कतार खड़ी करना हर भारतीय अपना जन्मसिद्ध अधिकार समझता है। यही कारण है कि प्रतिवर्ष एक आस्ट्रेलिया यहाँ की जनसंख्या में जुड़ता चला जा रहा है। यदि इस जनवृद्धि पर नियंत्रण न हो सका तो हमारे सारे प्रयोजन और आयोजन व्यर्थ हो जाएँगे। धरती पर पैर रखने की जगह नहीं बचेगी।

जब किसी समाज के सदस्यों की संख्या बढ़ती है, तो उसे उनके भरण-पोषण के लिए जीवनोपयोगी वस्तुओं की आवश्यकता पड़ती है। परंतु वस्तुओं का उत्पादन तो गणितीय क्रम से होता है और जनसंख्या रेखागणित की दर से बढ़ती है। फलस्वरूप जनसंख्या और उत्पादन दर में चोर-सिपाही का खेल शुरू हो जाता है। आगे-आगे जनसंख्या दौड़ती है और पीछे-पीछे उत्पादन-वृद्धि। वास्तविकता यह है कि उत्पादन वृद्धि के सारे लाभ को जनसंख्या की वृद्धि व्यर्थ करा देती है। देश वहीं-का-वहीं पड़ा रहता है। वस्तुएँ अलभ्य हो जाती हैं। महँगाई निरंतर बढ़ती है। जीवन-स्तर गिरता जाता है। गरीबी, अशिक्षा, बेकारी बढ़ती चली जाती है।

बड़ा परिवार एक ‘ओवर लोडेड’ गाड़ी के समान होता है, जिसे खींचने वाले कमाऊ घोड़े अपनी जिंदगी की रोटी, कपड़ा और मकान की चिंता में होम कर देते हैं, फिर भी पेट खाली-के-खाली, परिजन नंगे-के-नंगे दिखाई देते हैं। पारिवारिक जीवन क्लेशमय हो जाता है।

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